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कोलिहा लवन , बलौदाबजार, छत्तीसगढ, India
नाम- मथुरा प्रसाद वर्मा पिता- स्व. जती राम वर्मा माता- श्रीमती पितरबाई वर्मा जन्मतिथि- 22-06-1976 जन्मस्थान - ग्राम -कोलिहा, जिला-बलौदाबाजार (छ ग ) कार्य - शिक्षक शा पु मा शाला लहोद, जिला बलौदाबाजार भाटापारा शिक्षा - एम् ए ( हिंदी साहित्य, संस्कृत) डी एड लेखन- कविता, गीत, कहानी,लेख,

अमृत ध्वनि छन्द : फोकट खा खा

खा खा के फोकट कका, लोगन होय अलाल।
काम काज कछु नइ करय, बइठ झड़कथे माल।
बइठ झड़कथे, माल मलाई, कुकरा दारू।
जांगर कोढ़ी, होथे मनखे , बनय बजारू।
मार गरब मा,बोल उराठिल, बोलय भाखा।
स्वाभिमान ला, बेंचत मनखे, फोकट खा खा।

चोर मन ल चोर कहे म डर लगथे

चोर मन  ल चोर कहे मा  डर लगथे।
बइरी के तरुवा चाटे बर मर लगथे।

सत बर लड़ने वाला लड़ के मर जाथे,
साले तुमला साथ रहे मा जर लगथे।

मर मर के जीना भी का जीना ये,
लड़ के मर जाये बर जिगर लगथे।

कुकुर मन ला जूठा पतरी चाटन दे।
स्वाभीमानी ला रोटी जहर लगथे।

बड़े बड़े रावण के राज सिरा जाथे
झुठ के लंका मेटे म छीन भर लगथे।





प्रेरणा गीत : जीत उही ला मिलथे संगी।

जीत उही ला मिलथे संगी, थकय नइ जे हार के।
चलव, रुकव-झन हार मान तुम, मँजिल कहे पुकार के।

भागत- दउडत गिर जाथे जी, बने-बने ह खसल के ।
गिर के कोनो  नइ गिर जाये,  जे उठ जाय सम्हल के ।
नानकुन चांटी चढ़ जाथे;  माथा मा  पहाड़  के ।
चलव, रुकव झन ................

खुन्दा खुन्दा के पाँव तरी, जे माटी ह सनाथे ।
हड़िया बन के उही एकदिन, सबके प्यास बुझाथे ।
माटी सहीं सहे ला परथे;  पीरा ये सँसार के ।
चलव, रुकव झन .......

अन्न उपजाथे मिहिनत कर के, पर के कोठी भरथे।
अपन भुखन लाँघन रह के, भूख आन के हरथे।
सूरज ला जे रोज जगाथे, भिनसरहा मुंधियार के।
चलव, रुकव झन .......

दिन के सपना नइ सोवन दय, जे दिनरात जगाथे।
जे सपना के खातिर जागय, रद्दा नवाँ बनाथे।
कहाँ टिके हे बन के बाधा, जलधार पतवार के।
चलव, रुकव झन .......

अक्षर के सँग करौ मितानी, पढ़ लिख भाग जगावव।
सरग बना दव ये दुनिया ला, उजियारा बगरावव।
नवाँ बिहिनिया  आही रख दव, रद्दा ल चतवार के।
चलव, रुकव झन .......

खावन दे।

ना खाएं ना खावन दे।
न लाने न लावन दे।

दूध दही हो पाही कइसे,
जमय नही बिन जावन दे।

तरसत तन मन प्यास बुझा
घुमड़ घुमन के छावन दे।

आगी होंगे धरती अब, 
दे दे जल्दी सावन दे।

महुँ बरसहूँ जी भर के अब।
आज पिया ला आवन दे 


दु गीत मया के गावन दे।

दू गीत मया के गावन दे।
 दू गीत मया के गावन दे।


एक गीत यार जवानी के 
जिनगी के प्यार कहानी के।
एक गीत अमर बलिदानी बर।
लहू डबकात जे रवानी बर।
बिरवा मँय बोयें जिनगी भर, 
अब फूल सहीं ममहावन दे।

सब मीत मोर सब सँगवारी।
जावत हावे आरी पारी।
कब मोर बुलावा आ जाही।
कब साँस कहाँ थीरा जाही।
जब बोझ साँस के ढोवत हँव,
मन के मनमीत सुनावन दे।

कतको जाही कतको आही।
कवि अपन पिरा ल गोहराही।
ये दुनिया आनीजानी ये ।
जिनगी के इही कहानी ये।
ये रंगमंच मा आज महुँ ला,
रस घोरन दे बरसावन दे।







एक जंग अभी तक जारी है।

 जंग अभी तक जारी है।

इस दौर में भी, इस हाल में भी।
इस लड़खड़ाती चाल में भी।
लड़ना तो फिर भी पड़ता है, 
घिर कर संकट काल में भी।
दिल में जब तक चिंगारी है।
एक जंग अभी तक जारी है।


बैरी है बलवान तो क्या?
छुपा हुआ पहचान तो क्या?
हतास नहीं, निराश नहीं, 
मजबूर हुआ इन्सान तो क्या?
अभी हार कहाँ हमने माना,
क्या हुआ कि कुछ लाचारी है।
एक जंग अभी तक जारी है।

घुटनों पर हूँ, पर गिरा नहीं।
मुश्किल में हूँ, पर घिरा नहीं।
चल चल चल अभी चलना है, 
हूँ दूर बहुत, पर फिरा नहीं।
मंजिल तक जाना है मुझको,
कोई बात नहीं दुस्वारी है।
एक जंग अभी तक जारी है।


है सांस जहां तक दौडूंगा।
उम्मीद नहीं मैं छोडूंगा। 
जीवन है जीना ही होगा,
मैं डर कर मुँह न मोडूंगा।
कुछ लेना है कुछ देना है,
ले चुकाने दे जो उधारी है।
एक जंग अभी तक जारी है।


छत्तीसगढ़ी ग़ज़ल : कोन लिखथे साँच अब अखबार मा ।



कोन लिखथे साँच अब अखबार मा।
बेंच दे हे सब कलम बाजार मा।

मुँह ल खोले के जुलुम होगे हवे।
काट मोरो  घेंच ला तलवार मा।

हाँ तहूँ जी भर कमा ले लूट ले,
तोर मनखे बइठगे सरकार मा।

नाँव के खातिर मरे सनमान बर।
रेंगथे कीरा सहीं दरबार मा।

हे मया कइसे तहूँ हर मान बे,
बेंच दे न बिक जाहुँ बाजार मा।

नइ मिलय मन के मिलौना मोर कस
खोज के जा देख ले संसार मा मा।

बिन मरे कोनो सरग नइ पाय जी,
दुख दरद भरपूर  मिलथे प्यार मा।

मापनी  2122 2122  212

अमृत ध्वनि : मोर कराही


मोर कराही कस हृदय, सब बर हे अनुराग।
माढ़े आगी के ऊपर, दबकावत हँव साग।
दबकावत हँव, साग सबे बर, किसम किसम के।
हरदी मिरचा, मरी मसाला, डारँव जमके।
मन के भितरी,पोठ चुरत हे,  साग मिठाही।
कलम ह करछुल, कविता मोरे,मोर कराही।

छत्तीसगढ़ी गजल : सच कहें ले काय होही।



सच कहे ले काय होही।
झूठ हर भरमाय होही।

जे लबारी मार लेथे,
पेट भर के खाय होही।

देश आगी मा जरत हे,
कोई तो सुलगाय होही।

पोठ पहरा हे पुलिस के, 
चोर मन जुरियाय होही।

भूख  मा लइका बिलखथे,
भात दाई लाय होही।

मँय इँहा बिजहा मया के,
बोंय हँव ममहाय होही।

छोड़ देअब तँय सियानी,
शेर मन हा गाय होही।

फेर मनमाने पियत हे,
आज धोका पाय होही।


 मापनी  2122 2122

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