जीत उही ला मिलथे संगी, थकय नइ जे हार के।
चलव, रुकव-झन हार मान तुम, मँजिल कहे पुकार के।
भागत- दउडत गिर जाथे जी, बने-बने ह खसल के ।
गिर के कोनो नइ गिर जाये, जे उठ जाय सम्हल के ।
नानकुन चांटी चढ़ जाथे; माथा मा पहाड़ के ।
चलव, रुकव झन ................
खुन्दा खुन्दा के पाँव तरी, जे माटी ह सनाथे ।
हड़िया बन के उही एकदिन, सबके प्यास बुझाथे ।
माटी सहीं सहे ला परथे; पीरा ये सँसार के ।
चलव, रुकव झन .......
अन्न उपजाथे मिहिनत कर के, पर के कोठी भरथे।
अपन भुखन लाँघन रह के, भूख आन के हरथे।
सूरज ला जे रोज जगाथे, भिनसरहा मुंधियार के।
चलव, रुकव झन .......
दिन के सपना नइ सोवन दय, जे दिनरात जगाथे।
जे सपना के खातिर जागय, रद्दा नवाँ बनाथे।
कहाँ टिके हे बन के बाधा, जलधार पतवार के।
चलव, रुकव झन .......
अक्षर के सँग करौ मितानी, पढ़ लिख भाग जगावव।
सरग बना दव ये दुनिया ला, उजियारा बगरावव।
नवाँ बिहिनिया आही रख दव, रद्दा ल चतवार के।
चलव, रुकव झन .......
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