सुरुज के बिजहा ला बोंहव, अंधियारी के छाती मा।
तेल बना के लहू जराहंव, तन के दीया बाती मा।
बिरबिट कारी अँधियारी हे, तबले रात पहाही रे,
मोरे खांद म चढ़ के इक दिन, नवाँ बिहिनिया आही रे।
आगी सहीं जरत हे भुइँया, सुरुज अँगरा बरसाथे।
प्यास म व्याकुल प्राणी मन ला, तरिया नदिया तरसाथे।
बादर के जब मया बरसही, माटी हर ममहाही रे।
मोरे खांद म चढ़ के इक दिन, नवाँ बिहिनिया आही रे।
मँय किसान के सिधवा बेटा, कपट कमाई नइ जानव।
मिहनत ले जे अन मिल जाथे, अपन भाग के मँय मानव।
मोर सही अपने बाँटा ला, कोन बाँट के खाही रे।
मोरे खांद म चढ़ के इक दिन, नवाँ बिहिनिया आही रे।
परे रहे ले दसना मा जी, नींद बाँह ला धर लेथे।
काम करइया तभे बिपत ले, झगरा जिनगी भर लेथे।
मिहनत के भट्ठी मा जागर, जोर त आलस जाही रे।
मोरे खांद म चढ़ के इक दिन, नवाँ बिहिनिया आही रे।
डरा डरा के सहत रहे ले, बइरी जादा बढ़ जाथे।
जिनगी भर के मुडपीरा बन, जब ये मुड़ मा चढ़ जाथे।
अतियाचारी रकसा कब तक, फ़ोर करेजा खाही रे।
मोरे खांद म चढ़ के इक दिन, नवाँ बिहिनिया आही रे।
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