जिनगी म उकेरे पियार होही।
सिक्का के जीहां बौछार होही।
धन बर बनही सबो रिस्ता नाता,
मया के डोरी तार तार होही।
दू कौड़ी मा ईमान बेचाही ,
ये दुनिया ह सिरतोन बजार होही।
लबरा मन के दिन ह बहुरही,
सतवन्ता के ऊजार होही।
पइसा के बाढ़ही कतका ताकत
मनखे ह कतका अउ लाचार होही।
जनता लुटाही संझा बिहिनिया,
बैपारी मनके जब सरकार होही।
अब कौन बचाही काकर धन ल,
चोर मन जिहां पहरेदार होही।
कतको बरजबे कोनो नई माने,
परसाद' जिनगी तोरे ख्वार होही।
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